Anupam Upadhyay I know nothing!

C R A P - 3

बहुत दिनों से दिमाग कुछ हरकतें कर रहा है. शायद यह नशे का असर था या मेरी मनःस्थिति का, ये तो मैं न भांप पाया न ही भांप पा रहा हूँ. एक कोहरा सा आँखों के सामने छाया हुआ है और आँखें बोझिल हैं. ज़िन्दगी अपना रास्ता खुद चुन रही है, बिना मेरी मंशा पूछे. या असल में मेरी कोई मंशा ही नहीं है और ज़िन्दगी को तो आखिर चलते ही जाना होता है.

अचरज की बात तो ये है की कुछ चीज़ें तो दिखाई ही नहीं दे रहीं और कुछ चीज़ें एकाएक संज्ञान के इतने निकट हैं, वह बातें जिनपे मैंने कभी विचार भी नहीं किया सहसा जीवन का अभिन्न अंग बन गयीं हैं.

जब पीछे मुड के देखता हूँ तो यही लगता है की इस समाज ने जो मेरे दिमाग पे प्याज नुमा परतें चढाई हैं वह उतार फेंकने की तीव्र इच्छा बलवती होती जा रही है. इस समाज का उपहास ही जीवन का एक मात्र अंग बनता जा रहा है. फिर ये लगता है की एक पागल में और एक आम इंसान में अंतर ही क्या है? बस ये की उस पागल ने समाज के उन नियमों को नहीं माना जो उसके स्वछन्द विचरण को रोकने का प्रयास करते हैं?

ऐसे में शिवमंगल सिंह सुमन की कविता ध्यान आ रही है:

हम पंछी उन्मुक्त गगन के पिंजर बदॄ न गा पायेंगे
कनक तीलियों से टकरा कर पुलकित पंख टूट जाएँगे
हम बहता जल पीने वाले मर जाएँगे भूके प्यासे
कहीं भली है कटुक निबोरी कनक कटोरी की मैदा से

आज ऐसा प्रतीत होता है की कवी के ह्रदय में न सिर्फ पंछियों की व्यथा थी अपितु उसके ह्रदय में मानव का इस मुखौटे में कैद होना भी था. ये मुखोटा जो हमें सदा लगाये रहना पड़ता है समाज के आगे. एक टीस सी है दिल में जो कहती है इस मुखोटे को उतार फैंको. मन कुंठित सा लगता है आत्मा जर्जर. ये रीति रिवाज, धर्म और समाज ये किस लिए हैं? हमें खुद से दूर करने के लिए? ये मेरी व्यथा है या मानव की अस्तित्व की विडंबना? हमें खुद को जानने के लिए इतनी मेहनत करनी होती है और जो खुद को जान जाता है उसे देव कहते हैं. यदि इस जीवन का उद्देश्य इसीके अस्तित्व को समझना है तो या तो यह उद्देश्य बहुत तुच्छ है या इस उद्देश्य का संज्ञान उस परम सत्य की प्राप्ति करेगा जिसकी अभी च्येस्था मात्र कर सकता हूँ.

P.S. Have transliterated this so please pardon the spelling mistakes.